कुपोषण पर भारत की स्थिति किस पायदान पर ? नैफेड के सप्लायर ही करते हैं राशन में कालाबाजारी
प्रयागराज परिषदीय प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्कूलों में उधार के तेल, नमक और सब्जी से बच्चों का मिड-डे-मील बन रहा है। कोरोना काल की बंदी के बाद 24 अगस्त से उच्च प्राथमिक और एक सितंबर से प्राथमिक स्कूल खुल चुके हैं। लेकिन सरकार ने मध्याह्न भोजन बनाने के लिए परिवर्तन लागत का बजट जारी नहीं किया है।
कक्षा 1 से 5 तक के प्रत्येक बच्चे के लिए 4.97 रुपये और उच्च प्राथमिक स्कूल के प्रत्येक बच्चे के लिए 7.45 रुपये परिवर्तन लागत के रूप में मिलते हैं। इससे प्रधानाध्यापक गैस, सब्जी, दाल, तेल, नमक, मसाजा, सब्जी वगैरह का इंतजाम करते हैं। प्रत्येक बच्चे को हर सोमवार एक फल और बुधवार को दूध भी इसी पैसे से दिया जाता है।
परिवर्तन लागत न मिलने से प्रधानाध्यापक या तो उधार लेकर भोजन बनवा रह हैं या फिर अपने वेतन से खर्च कर रहे हैं। अप्रैल में हुए पंचायत चुनाव में जिन गांवों में नये प्रधान चुने गए हैं वहां शिक्षकों को और परेशानी हो रही है क्योंकि प्रधान मदद करने को तैयार नहीं हो रहे। पुराने प्रधान जानते हैं कि लेट-लतीफी से ही सही रुपया आ जाएगा तो वे सहयोग कर रहे हैं। मिड-डे-मील के जिला समन्वयक राजीव त्रिपाठी का कहना है कि शासन से बजट मिलते ही खातों में ट्रांसफर कर दिया जाएगा। परिवर्तन लगात बढ़ाने पर भी कोई निर्णय नहीं
केंद्र सरकार हर साल अप्रैल में परिवर्तन लागत का निर्धारण करती है। लेकिन इस बार अब तक नई दरें तय नहीं हो सकी है। एक अप्रैल 2020 के बाद इसका नया मानक नहीं तय किया गया। प्राथमिक शिक्षक संघ के जिलाध्यक्ष देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव का कहना है कि तबसे अब तक महंगाई आसमान छू रही है। ऐसे में महंगाई को देखते हुए परिवर्तन लागत में भी उसी अनुपात में वृद्धि होनी चाहिए।
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इस महीने की शुरुआत में जारी ग्लोबल हंगर रिपोर्ट (जीएचआर) ने देश में भूख व कुपोषण की व्यापकता की पुष्टि की है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) के आधार पर भारत को निचले पायदान पर रखा गया है। यह आश्चर्य की बात नहीं है। वैसे जीएचआर इस समस्या को चिह्नित करने वाली पहली रिपोर्ट नहीं है, लेकिन जिस बात ने कई लोगों को चौंकाया है, वह है इस पर सरकार की प्रतिक्रिया। बेशक, अन्य मापने वाली पद्धतियों की तरह जीएचआई पद्धति की गुणवत्ता पर बहस हो सकती है और यह निश्चित रूप से कुपोषण के स्तर या प्रवृत्ति को मापने का सबसे प्रामाणिक उपाय नहीं है। इनमें से अधिकांश अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग प्रत्येक देश के अपने अनुमानों पर आधारित है और विभिन्न देशों में परिभाषा, अवधारणा और तुलनात्मकता की सीमाओं से ग्रस्त है।
जीएचआई में चार संकेतकों का उपयोग किया जाता है : कुपोषित जनसंख्या का अनुपात, बाल मृत्यु दर, नाटे बच्चों का प्रतिशत व बेकार हुए बच्चे। इनमें से अधिकांश संकेतकों की जानकारी वार्षिक आधार पर उपलब्ध नहीं है। ऐसे में, प्रॉक्सी संकेतकों के जरिये अर्थमितीय तकनीक के माध्यम से अनुमान लगाया जाता है। जैसे, कुपोषित लोगों का अनुपात भोजन की उपलब्धता और खपत, आय के स्तर व जनसंख्या संरचना पर निर्भर करता है। यह वह संकेतक है, जिसमें हाल ही में गिरावट देखी गई है। देश में पिछला खपत सर्वेक्षण 2017-18 में हुआ था, पर सरकार ने इसके निष्कर्षों को खारिज कर दिया।
पद्धतिगत अंतर के बावजूद, आय व अन्य अनुमानों का उपयोग करते हुए कोई भी पैमाना हमारी कुपोषित आबादी की स्थिति बिगड़ने का संकेत दे सकता है। यह आधिकारिक तौर पर स्वीकार किया गया तथ्य है कि देश में पिछले पांच वर्षों में तेज आर्थिक मंदी देखी गई है। यहां तक कि अस्थायी मजदूरों के वास्तविक वेतन संबंधी हमारे आंकड़े भी सबसे गरीब लोगों की आय में गिरावट की ओर साफ इशारा करते हैं। हाल ही में जारी एक किसान सर्वेक्षण भी खेती से आय में गिरावट की पुष्टि करता है। आर्थिक पैमानों के निचले हिस्से में रहने वाले अधिकांश भारतीयों की वास्तविक आय में भारी गिरावट के सुबूत हैं, विशेष रूप से अस्थायी रोजगार, असंगठित क्षेत्र की नौकरियों व कृषि में लगे लोगों की आय कम हुई है। आश्चर्य नहीं कि हमारी अल्पपोषित आबादी आय अनुमानों के प्रॉक्सी डाटा के उपयोग से निर्धारित होती है। साल 2011-12 से 2017-18 के बीच वास्तविक खाद्य व्यय में गिरावट देखी गई है। ये सभी आधिकारिक अनुमान हैं। भोजन की खपत व अल्प-पोषण का आकलन करने वाली कोई अन्य विश्वसनीय पद्धति भी पिछले आधे दशक में अल्प-पोषण की पुष्टि ही करेगी।
जहां तक बच्चों में कुपोषण के संकेतकों का सवाल है, तो हमारे पास वर्ष 2019-20 के लिए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) के आंशिक आंकड़े हैं। इसके डाटा से पता चलता है कि 22 में से 13 राज्यों में बच्चों का कद घटने और 12 राज्यों में बच्चों के खराब होने में वृद्धि हुई है। बाल कुपोषण के मामले बढ़ते लग रहे हैं, जबकि इन 22 राज्यों में कुछ सबसे गरीब राज्य शामिल नहीं हैं, जैसे उत्तर प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान। ये ऐसे राज्य हैं, जहां कुपोषण की दर अधिक है।
भारत कुपोषण की चुनौती का सामना कर रहा है, जो न केवल बड़ी है, गंभीर भी है। यहां तक कि अगर कोई जीएचआर की उपेक्षा करता है और पूरी तरह से भारत सरकार द्वारा जारी किए गए आंकड़ों पर निर्भर करता है, तब भी निष्कर्ष वही होगा। इसलिए, जीएचआई की कार्यप्रणाली पर अनुचित प्रश्न उठाने का प्रयास न केवल किशोर के रूप में सामने आता है, बल्कि यह हमें असल मुद्दे से भी भटकाता है। यह प्रतिक्रिया रोजगार सर्वेक्षणों को जारी करने और उपभोग सर्वेक्षणों की अस्वीकृति रोकने के पहले के प्रयासों से अलग नहीं है, लेकिन इससे जमीनी हकीकत नहीं बदलेगी। सरकार के अपने सर्वेक्षणों में ही रोजगार को पहुंचे गंभीर नुकसान, आय में गिरावट और महामारी के बाद जरूरी सामाजिक सुरक्षा सेवाओं तक कई लोगों की पहुंच में कठिनाई सामने है। यह समय असुविधाजनक सच्चाई का सामना करने व आंकड़ों को झुठलाने की कोशिश के बजाय स्थिति सुधारने के लिए आवश्यक साधनों को आगे बढ़ाने का है।